अन्धक के गणपति बनने की कथा
हिरण्याक्ष का पुत्र पूर्व में अन्धक नाम से प्रसिद्ध था। उसके सोने के जैसे नेत्र थे। उसने तपस्या द्वारा ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान प्राप्त कर लिया था। इसके चलते उसने त्रिलोकी को जीत कर भोगने लगा। इंद्र आदि देवताओं को पीड़ा देने लगा। देवताओं को अनेक प्रकार से प्रताड़ना देने लगा जिससे देवता डर कर मंदराचल में आकर रहने लगे। फिर इंद्र आदि सब सिद्ध और ऋषियों के साथ शिव जी के पास आकर बोले – हे नाथ! अन्धक के शस्त्रों से छिन्न – भिन्न हुए हम बड़े दुखी है। ऐसा सब वृत्तांत सुनकर भगवान शंकर अपने गणों के साथ अन्धकासुर के पास आए । उसे समय ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सब सुरेश्वर, देवेश्वर तथा मुनिश्वर, भगवान शिव की जय हो, जय हो ऐसा बोलने लगे। अंधक अपने वाणों से सब देवताओं को छिन्न-भिन्न करने लगा ऐसा देखकर भगवान शिव ने उसे अपने शूल से भेद कर ऊपर को टाँग लिया। भगवान के दर्शन से उसका पाप रूपी कवच जल गया । यह देख ब्रह्मा जी शंकर को प्रणाम कर बड़े जोर से नाद करने लगे। देवता भी प्रसन्न होकर ज़ोर से शब्द करके प्रशंसा करने लगे। तीनों लोकों में आनंद और हर्ष होने लगा। शूल से जिसके पाप मिट गए थे वह दैत्य सात्विक भाव से विचार करने लगा जन्मांतर में भी देवों के देव शंकर ने मेरे पाप जलाया था और शंकर की आराधना मैने की थी। प्राण के अंत में जो शंकर का स्मरण करता है वह शिव को प्राप्त होता है। बहुत ही स्मरण करने वाले की बात ही क्या है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र आदि सभी इनकी शरण में रहते हैं। अतः शिव की शरण में ही मुझे जाना चाहिए। ऐसा विचार करके वह अन्धक शिव के गणों सहित शिव की स्तुति करने लगा।
शिवजी उसकी स्तुति से प्रसन्न हो हिरण्याक्ष के पुत्र जो सूर्य के मध्य में शूल पर टंगा है उससे बोले – वरदान मांग मै तेरे से प्रसन्न हूं। शिव की ऐसी वाणी सुनकर वह दैत्य हर्ष से गद् – गद् हो महेश्वर से बोला – हे देवों के देव! भक्तों के दुख दूर करने वाले महादेव, मुझसे प्रसन्न होइए और भक्ति रूप वरदान मुझे दीजिए। ऐसे अन्धक की बात सुनकर भगवान ने दुर्लभ और शुद्ध बुद्धि दी और शूल से उतार कर उसे गणपति पद पर अधिष्ठित किया। तब तो गणपति पद पर अधिष्ठित जानकर सभी देवताओं ने उसे प्रणाम किया। इस प्रकार अन्धक को गणपति पद मिला।