
नारद जी का तपस्या करने जाना तथा इंद्र के द्वारा कामदेव से नारद जी की तपस्या में विघ्न डलवाना
एक बार नारद जी तपस्या में मन लगाने हिमालय पर्वत कि एक गुफा में गए। वह गुफा बड़ी शोभा से सम्पन दिखाई देती थी। उसी के निकट देवनदी गंगा निरंतर वेगपूर्वक बहती थी। वहां एक महान दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकार की शोभा से सुशोभित था। नारद जी तपस्या करने के लिए उसी आश्रम में गए। नारद जी ने उसे गुफा में सुदीर्घकाल तक तपस्या की, जिससे उनका अन्त:करण शुद्ध हो गया। वे दृढ़ता पूर्वक आसन बांधकर मौन हो प्राणायाम पूर्वक समाधि में स्थित हो गए। उन्होंने वहां समाधि लगाई, जिसमें ब्रह्मा का साक्षात्कार कराने वाला ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ ( मैं ब्रह्मा हूं )- यह विज्ञान प्रकट होता है। मुनिवर नारद जी इस प्रकार तपस्या कर रहे हैं यह समाचार जब इंद्र को मिला तो इंद्र भयभीत हो गया। वे मानसिक संताप करने लगे की यह नारद मुनि मेरा सिंहासन लेना चाहते हैं। इंद्र इंद्र ने मन में नारद मुनि की तपस्या में विघ्न डालने का निश्चय किया और कामदेव का स्मरण किया। कामदेव का स्मरण करते ही कामदेव जी प्रकट हो गए। इंद्र ने नारद मुनि की तपस्या में विघ्न डालने के लिए कामदेव को आदेश दिया। अब कामदेव जी नारद मुनि की तपस्या भंग करने के लिए वसंत को अपने साथ लेकर उस स्थान पर आ गए जहां नारद मुनि तपस्या कर रहे थे। उन्होंने वहां शीघ्र ही अपनी सारी कलाएं रच डाली। बसंत भी अपना प्रभाव अनेक प्रकार से प्रकट करने लगा। किंतु कामदेव और बसंत के अथक प्रयत्न करने पर भी नारद मुनि का चित्त में विकार उत्पन्न नहीं हुआ। इसमें भगवान शिव की कृपा थी, इसलिए कामदेव और बसंत का प्रभाव उस क्षेत्र में नहीं हुआ जहां नारद मुनि तपस्या कर रहे थे।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसी आश्रम में कामशत्रु भगवान शिव पहले तपस्या कर चुके थे। और वहां ऋषि मुनियों की तपस्या में विघ्न डालने वाले कामदेव का शीघ्र ही नाश किया था। उस समय रति ने कामदेव को पुनः जीवित करने के लिए देवताओं से प्रार्थना की। तब देवताओं ने समस्त लोको का कल्याण करने वाले भगवान शिव से याचना की। देवताओं की याचना करने पर भगवान शिव बोले -देवताओं! कुछ समय व्यतीत होने पर कामदेव जीवित हो जाएंगे, परंतु यहां उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा। यहां खड़े होकर लोग चारो ओर जहां तक कि भूमि अपनी नेत्र से देख पाते हैं वहां तक कामदेव का कोई बाण का प्रभाव नहीं चल सकेगा। इसीलिए कामदेव का प्रभाव नारद जी पर मिथ्या सिद्ध हो गया।
मोहवश नारद का कामदेव पर विजय होने का वृतांत शिवजी को सुनाना
कामदेव शीघ्र ही स्वर्ग लोक में इंद्र के पास वापस लौट आए। वहां कामदेव ने अपना सारा वृत्तांत और मुनि का प्रभाव कह सुनाया। उस समय इंद्र को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारद जी की प्रशंसा की परंतु शिव की माया से मोहित होने के कारण उन्हें पूर्व में जो हुआ वह स्मरण नहीं कर सके। उन्हें याद ही नहीं रहा की पूर्वकाल में भगवान शिव के कथन अनुसार उस क्षेत्र में कामदेव के बाण का प्रभाव नहीं होगा। वास्तव में इस संसार में सभी प्राणियों को शंभू की माया को जानना अत्यंत कठिन है। जिसने भगवान शिव के चरणों में अपने – आप को समर्पित कर दिया हो उसे भक्त को छोड़कर से सारा जगत शिव की माया से मोहित हो जाता है। नारद जी भी शिव की कृपा से वहां चिरकाल तक तपस्या में लग रहे। जब नारद मुनि ने अपनी तपस्या पूरी हुई समझा। तब वे ‘कामदेव पर मेरी विजय हुई’ ऐसा मानकर उनके मन में व्यर्थ ही गर्व हो गया। भगवान शिव की माया से मोहित होने के कारण उन्हें यथार्थ बात का ज्ञान नहीं रहा। वे यह नहीं समझ सके कि कामदेव के पराजय होने में भगवान शिव का प्रभाव है। उसे माया से अत्यंत मोहित हो मुनिशिरोमणि नारद अपना काम – विजय – संबंधी वृतांत बताने के लिए तुरंत ही कैलाश पर्वत पर गए। कैलाश पहुंचकर रूद्र देव को नमस्कार करके गर्व से भरे हुए मुनि अपने – आप को महात्मा मानकर तथा अपने ही प्रभाव से कामदेव पर विजय हुई समझकर उनसे सारा वृत्तांत कह सुनाया।
शिवजी का नारद को अपना वृत्तांत किसी से न कहने की आज्ञा देना

नारद जी शिव की माया से मोहित होने के कारण वे अपना विवेक को खो बैठे थे, उनसे शिव जी ने कहा – तात नारद! तुम बड़े विद्वान हो, धन्यवाद के पात्र हो। परंतु मेरी यह बात ध्यान देकर सुनो। अब से फिर ऐसी बात कहीं पर भी ना कहना। विशेषत: भगवान विष्णु के सामने इसकी चर्चा कदापि न करना। तुमने मुझसे जो अपना वृत्तांत बताया है, उसे पूछने पर भी दूसरों के सामने न कहना। यह सिद्धि संबंधी वृतांत सर्वथा गुप्त रखने योग्य है, इसे कभी किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। तुम मुझे अधिक प्रिय हो, इसलिए अधिक जोर देकर मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूं और इसे न कहने की आज्ञा देता हूँ, क्योंकि तुम भगवान विष्णु के भक्त हो और उनके भक्त होते ही तुम मेरे अत्यंत अनुगामी हो।
शिव जी के मना करने पर भी नारद का अपना वृत्तांत ब्रह्मा जी को और विष्णु जी को बताना
इस प्रकार शिव जी ने अपने वृत्तांत को गुप्त रखने के लिए नारद जी को समझाया। परंतु वे तो शिव की माया से मोहित थे। इसलिए उनकी दी हुई शिक्षा को अपने लिए हितकर नहीं माना। और नारद जी ब्रह्मलोक की ओर चल गए। वहां जाकर उन्होंने ब्रह्मा जी को नमस्कार करके कहा – पिताजी! मैंने अपने तपोबल से कामदेव को जीत लिया है। उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने भगवान शिव जी का चिंतन किया और सारा कारण जानकर अपने पुत्र को यह सब कहने से मना किया। परंतु शिव की माया से मोहित होने के कारण नारद जी के चित्त में मद का अंकुर जम गया था। उनकी बुद्धि मारी गई थी। इसलिए नारद जी अपना सारा वृत्तांत भगवान विष्णु के सामने कहने के लिए वहां से शीघ्र ही विष्णु लोक में गए। नारद मुनि को आते देख भगवान विष्णु बड़े आदर से उठे और उन्हें गले लगा लिया। मुनि के आगमन का क्या कारण है, यह उन्हें पहले से ही पता था। फिर भी भगवान विष्णु ने पूछा – तात! कहां से आते हो? यहां किस लिए तुम्हारा आगमन हुआ है? तब नारद मुनि मद से मोहित होकर अपना सारा वृत्तांत बड़े अभिमान के साथ कह सुनाया। नारद मुनि का अहंकार युक्त वचन सुनकर मन ही मन भगवान विष्णु ने उनके काम विजय के यथार्थ कारणों को पूर्ण रूप से जान लिया। तत्पश्चात श्री विष्णु बोले- मुनिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो, तपस्या के तो भंडार ही हो। तुम्हारा हृदय भी बड़ा उदार है। मुने! जिसके भीतर भक्ति ज्ञान और बैराग नहीं होते उसी के मन में समस्त दुखो को देने वाले विकार काम, मोह आदि उत्पन्न होते हैं तुम तो ब्रह्मचारी हो और सदा ज्ञान बैराग से युक्त रहते हो, फिर तुम में काम बिकार कैसे आ सकता है। तुम तो जन्म से ही निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धि वाले हो।
श्री हरि की कही हुई ऐसी बहुत सी बातें सुनकर मुनिशिरोमणि नारद जोर-जोर से हंसने लगे और मन ही मन भगवान को प्रणाम करके इस प्रकार बोले – स्वामीन्! जब मुझ पर आपकी कृपा है, तब बेचारा कामदेव अपना प्रभाव कैसे दिखा सकता है। ऐसा कहकर नारद मुनि भगवान को प्रणाम करके वहां से चले गए।
श्री हरि का नारद मुनि के सामने अपनी माया प्रकट करना
नारद मुनि के वहां से चले जाने के बाद श्री हरि ने तत्काल अपनी माया प्रकट की। उन्होंने मुनि के मार्ग में एक विशाल नगरी की रचना की, जिसका विस्तार सौ योजन था। वह अद्धभुत नगर बड़ा ही मनोहर था। वहां शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वे अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिए उद्यत थे। अतः उन्होंने महान उत्सव का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिए चारों दिशाओं से बहुत से राजकुमार पधारे थे। जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुन्दर शोभा से प्रकाशित हो रगे थे। उन राजकुमारों से वह भरा-पूरा दिखाई देता था। ऐसे सुंदर राज नगर को देख नारद जी मोहित हो गए। वे राजा शीलनिधि के द्वार पर गए। नारद जी को आया देख महाराज शिलनिधि ने उनको सिंहासन पर बिठाकर उनका पूजन किया। तत्पश्चात अपनी सुंदर कन्या को, जिसका नाम श्रीमती था, बुलवाया और उसको नारद जी के चरणों में प्रणाम करवाया। उस कन्या को देखकर नारद जी चकित हो गए और बोले- राजन! यह देव कन्या के समान सुंदरी महाभागा कन्या कौन है? उनकी यह बात सुनकर राजा ने कहा- मुने! यह मेरी पुत्री है। इसका नाम श्रीमती है। अब इसका विवाह का समय आ गया है। यह अपने लिए सुंदर वर चुनने के लिए निमित्त स्वयंवर में जाने वाली है। महर्षि!आप इसका भाग्य बताइए। राजा के इस प्रकार पूछने पर काम से विह्वल उठे मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा मन में लिए राजा को संबोधित करके इस प्रकार बोले- राजन्! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणों से संपन्न है, परम सौभाग्यवती है। अपने महान भाग्य के कारण यह धन्य है। और लक्ष्मी जी की भांति समस्त गुणों की आगार है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होने वाला, वीर कामविजयी तथा संपूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा। ऐसा कहकर राजा से विदा ले अपनी इच्छा अनुसार विचरने वाले नारद मुनि वहां से चल दिए। वे काम के वसीभूत हो गए थे। शिव की माया ने उन्हें विशेष मोह में डाल दिया था। वे मन ही मन सोचने लगे कि मैं इस कन्या को कैसे प्राप्त करूं ? स्वयंवर में आए हुए सभी नरेशों को छोड़कर, यह एकमात्र मेरा ही वरण करें यह कैसे संभव हो सकता है? समस्त नारियों को सर्वथा सौंदर्य प्रिय होता है। सौंदर्य को देखकर ही वह प्रसन्नता पूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें कोई संशय नहीं है। ऐसा विचार कर काम से विह्वल हुए मुनिवर नारद तत्काल भगवान विष्णु का रूप ग्रहण करने के लिए उनके लोक में जा पहुंचे। वहां भगवान विष्णु को प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले – भगवन्! मैं एकांत में अपना सारा वृत्तांत आपसे कहूँगा। तब ‘बहुत अच्छा ‘ कह कर लक्ष्मीपति श्री हरि नारद जी के साथ एकांत में जा बैठे और बोले – मुने! अब आप अपनी बात कहिए।
नारद का श्री हरि से उनका स्वरूप मांगना
तब नारद जी ने कहा – भगवन्! आपका भक्त जो राजा शीलनिधि है, वे सदा धर्मपालन में तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुंदरी है। उसका नाम श्रीमती है। वह विश्व मोहनी के रूप में विख्यात है और तीनों लोको में सबसे अधिक सुंदरी है। प्रभु! मैं शीघ्र ही उस कन्या से विवाह करना चाहता हूं। राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री की इच्छा से स्वयंवर रचाया है। इसलिए चारों दिशाओं से वहां सहस्त्रों राजकुमार पधारे हैं। नाथ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ । अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिए, जिससे राजकुमारी श्रीमती निश्चित ही मुझे वर ले।
नारद मुनि की ऐसी बात सुनकर मधुसुदन हंस पड़े और मन ही मन भगवान शंकर का प्रभाव अनुभव करके उन दयालु प्रभु ने इस प्रकार उत्तर दिया – मुने! तुम अपने स्थान को जाओ मैं उसी तरह तुम्हारा हित साधन करूंगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य अत्यंत पीड़ित रोगी का करता है, क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो।
श्री हरि का नारद को मुंह वानर का और शेष स्वरूप अपना देना

ऐसा कहकर श्री हरि ने नारद जी को मुँह तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपना जैसा स्वरूप देकर वे वहां से अन्तर्धहो अन्तर्धान गए। नारद मुनि को बड़ा हर्ष हुआ कि उन्हें बड़ा मनोहर स्वरूप प्राप्त हो गया। भगवान ने उनके साथ क्या किया इसको भी समझ न सके। तदांतर मुनि श्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थान पर जा पहुंचे, जहां स्वयंवर हो रहा था। नारद जी उसे सभा में जा बैठे। बैठकर प्रश्न मन से सोचने लगे की ‘ मैं भगवान विष्णु के समान रूप धारण किए हुए हैं। अतः वह राजकुमारी निश्चित ही मेरा वरण करेगी किसी दूसरे का नहीं।’ नारद मुनि को यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुंह कितना कुरूप है। उस सभा में बैठे हुए सभी मनुष्यों ने नारद मुनि को उनके पूर्व रूप में ही देखा था, राजकुमार आदि कोई भी उनके रूप परिवर्तन के रहस्य को न जान सके। वहां नारद जी की रक्षा के लिए रुद्र के दो पार्षद आए थे जो ब्राह्मण का वेश धारण किए हुए थे। वे ही नारदजी के रूप परिवर्तन के रहस्य को जानते थे। मुनि को कामावेश से मूढ़ हुआ जान वे दोनों पार्षद उनके निकट गए और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हंसी उड़ाने लगे। परंतु मुनि तो काम से विह्वल हो रहे थे। अतः उन्होंने उनकी बात भी अनसुनी कर दी। वे मोहित हो श्रीमती को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
स्वयंवर सभा में राजकुमारी श्रीमती का श्री हरि के कंठ में वरमाला पहनाना और नारद का शिवगणों को श्राप देना
इसी बीच में वह सुंदरी राज कन्या स्त्रियों से घिरी हुई अन्त:पुर से बाहर आयी। उसने अपने हाथ में सोने की एक सुंदर माला ले रखी थी। वह माला हाथ में लेकर अपने मन के अनुरूप वर का अन्वेषण करती हुई सारी सभा में भ्रमण करने लगी। नारद मुनि का भगवान विष्णु के समान शरीर और वानर जैसा मुख देखकर वह कुपित हो गई और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर प्रसन्न मन से दूसरी और चली गई । स्वयंवर सभा में अपने मनोवांछित वर को न पाकर वह भयभीत हो गई। राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गई। उसने किसी के भी गले में जयमाला नहीं डाली। इतने में ही राजा के समान वेशभूषा धारण किए भगवान विष्णु वहां आ पहुंचे। किन्ही दूसरे लोगों ने उन्हें वहां नहीं देखा केवल उस कन्या की ही दृष्टि उन पर पड़ी। भगवान को देखते ही उस परमसुंदरी राजकुमारी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कंठ पर वह माला पहना दी। राजा का रूप धारण करने वाले भगवान विष्णु उस राजकुमारी के साथ लेकर तुरंत ही अंतर्ध्यान हो गए और अपने धाम में जा पहुंचे। इधर सब राजकुमार श्रीमती की ओर से निराश हो गए। नारद मुनि तो कामवेदना से आतुर हो रहे थे। इसलिए वे अत्यंत विह्वल हो उठे। तब वे दोनों ब्राह्मण रूपधारी रुद्रगण नारद मुनि से बोले- हे नारद! तुम व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हो और सौंदर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हो। अपना वानर समान घृणित मुँह तो देख लो। तब नारद मुनि ने दर्पण में अपना मुँह देखा। वानर समान अपना मुंह देखकर वे तुरंत ही क्रोध से जल उठे और माया से मोहित होने के कारण उन दोनों शिवगणों को वहां श्राप देते हुए बोले – अरे! तुम दोनों ने मुझ ब्राह्मण का उपहास किया। अतः तुम दोनों ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न राक्षस हो जाओ। ब्राह्मण की संतान होने पर भी तुम दोनों का आकार राक्षस समान ही होगें। इस प्रकार अपने लिए श्राप सुनकर मुनि को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले और वहां से चले गए।
नारद का क्रोध में श्री हरि को दुर्वाचनपूर्ण व्यंग सुनाना और श्री हरि को श्राप देना

नारद मुनि उन दोनों शिवगणों को श्राप देते समय भी शिव की मोहनिन्द्रा जाग ना सके। वे भगवान विष्णु के किए हुए कपट को याद करके मन में क्रोध लिए विष्णु लोक को गये। क्रोध में जलते हुए उनका ज्ञान नष्ट हो गया था इसलिए वे दुर्वाचनपूर्ण व्यंग्य सुनाने लगे। नारद जी ने कहा – हरे! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्व को मोह में डाले रहते हो। दूसरों का उत्साह तुमसे सहा नहीं जाता। तुम मायावी हो, तुम्हारा अंत:करण मालिन है। पूर्व काल में तुम्हीं ने मोहिनी रूप धारण करके कपट किया, असुरों को मदिरा पिलाई और उन्हें अमृत का पान करने नहीं दिया। छल कपट में ही अनुराग रखने वाले हरे! यदि महेश्वर रूद्र दया करके विष न पी लेते तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती। विष्णुदेव! कपट पूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है। तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, तो भी भगवान शंकर ने तुम्हें स्वतंत्र बना दिया। तुम्हारी इस चाल – ढाल को समझकर अब भगवान शिव भी पश्चाताप करते होंगे। अपनी वाणीरूप वेद की प्रमाणिकता स्थापित करने वाले महादेव जी ने ब्राह्मण को सर्वोपरि बताया है। हरे! इस बात को जानकर मैं आज तुम्हें बलपूर्वक ऐसी सीख दूंगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे। अब तक तुम्हें किसी शक्तिशाली या तेजस्वी पुरुष से पाला नहीं पड़ा था। इसलिए आज तक तुम निडर बने हुए हो। परंतु विष्णु! अब तुम्हें अपनी करनी का पूरा-पूरा फल मिलेगा।
भगवान विष्णु से ऐसा कहकर माया मोहित नारद मुनि अपने ब्रह्मतेज का प्रदर्शन करते हुए क्रोध से खिन्न हो उठे और श्राप देते हुए बोले – विष्णु! तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया। तुम इसी तरह सबको मोह में डालते रहते हो। यह कपट पूर्ण कार्य करते हुए तुमने जिस स्वरुप से मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूप से तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्री के वियोग का दुख भोगों। तुमने जिन वानरों के समान मेरा मुंह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हो। तुम दूसरों को दुख देने वाले हो, अतः स्वयं भी तुम्हें स्त्री के वियोग का दुख प्राप्त हो। अज्ञान से मोहित मनुष्य के समान तुम्हारी स्थिति हो।
भगवान शिव का अपनी विश्व मोहिनी माया को वापस खींच लेना और नारद जी का श्री हरि से क्षमा मांगना
अज्ञान से मोहित हुए नारद जी ने मोहवश श्री हरि को जो श्राप दिया उन्होंने शंभू की माया की प्रशंसा करते हुए श्राप को स्वीकार कर लिया। तदांतर महालीला करने वाले शंभू ने अपनी उस विश्व मोहिनी माया को, जिसके कारण ज्ञानी नारद मुनि भी मोहित हो गए थे, उसे खींच लिया।
उसे माया से बाहर निकलते ही नारद जी अपनी शुद्ध बुद्धि से युक्त हो गए। उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी व्याकुलता जाती रही। इससे उनके मन में बड़ा विस्मय हुआ। वे आधिकारिक पश्चताप करते हुए बारंबार अपनी निंदा करने लगे। उस समय उन्होंने ज्ञानी को भी मोह में डालने वाली शंभु की माया की सराहना की। यह जानकर कि मैं माया के भ्रम में पड़ गया था, मुनीशिरोमणि नारद जी भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े। नारद जी भगवान विष्णु से बोले प्रभु मैं माया के वश में आकर आपको न जाने क्या-क्या कटु वचन कहा और श्राप भी दे डाला। प्रभु! आप उस श्राप को मिथ्या कर दीजिए। मैं बहुत बड़ा पापी हूं मुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मुझे क्षमा करें। नाथ! मैं आपका दास हूं मुझे कोई उपाय – प्रायश्चित बताइए जिससे कि मैं अपने पाप समूह को नष्ट कर सकूं और नरक में गिरने से बच सकूं। ऐसा कहकर नारद मुनि भगवान श्री हरि के चरणों में गिर गए। तब श्री विष्णु ने उठा कर उनसे मधुर वाणी में कहा- तात! चिंता न करो,मैं तुम्हें बताता हूं। तुम मेरे श्रेष्ठ हो। इसलिए तुम्हें एक बात बताता हूं जिससे तुम्हारा हित होगा। तुमने मद से मोहित होकर जो भगवान शिव की बात नहीं मानी थी – उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराध का भगवान शिव ने तुम्हें ऐसा फल दिया है, क्योंकि वे ही कर्म फल दाता है। तुम अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लो कि भगवान शिव की इच्छा से ही यह सब कुछ हुआ है। तुम भगवान शंकर के सुयश का गान करो। और उनकी उपासना और भजन करो तो तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो जाएंगे और तुम नरक में जाने से बच जाओगे।
यह कथा शिव पुराण में वर्णित है, इसमें बताया गया है कि यह संसार के रचयिता भगवान शिव है और उन्हीं की इच्छा अनुसार इस जगत में मनुष्य मोह माया में पड़ जाते हैं जो भगवान शंकर का अनन्य भक्त हो उसे छोड़कर शेष जगत शिव की माया से मोहित हो जाता है।