अग्नि पुराण में बुद्ध और कल्कि अवतारों की कथा

यह कथा अग्नि पुराण के सोलहवाँ अध्याय में वर्णित है जिसमें अग्नि देव कहते हैं – अब मैं बुद्ध अवतार का वर्णन करूंगा, जो पढ़ने और सुनने वालो के मनोरथ को सिद्ध करने वाला है। पूर्व काल में देवताओं और असुरों में घोर संग्राम हुआ। उसमें दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया। तब देवता लोग ‘त्राहि-त्राहि’ पुकारते हुए भगवान की शरण में गए। भगवान मायामोहमय रूप में आकर राजा शुद्धोदन के पुत्र हुए। उन्होंने दैत्यों को मोहित किया और उनसे वैदिक धर्म का परित्याग करा दिया। वे बुद्ध के अनुयायी दैत्य ‘बौद्ध’ कहलाये। फिर उन्होंने दूसरे लोगों से वेद धर्म का त्याग करवाया। इसके बाद माया – मोह ही ‘आर्हत ‘ रूप से प्रकट हुआ। उसने दूसरे लोगों को भी ‘आर्हत ‘ बनाया। इस प्रकार उनके अनुयायी वेद – धर्म से वंचित होकर पाखंडी बन गए। उन्होंने नर्क में ले जाने वाले कार्य करना आरंभ कर दिया। वे सबके सब कलयुग के अंत में वर्णसंकर होंगे और नीच पुरुषों से दान लेंगे। इतना ही नहीं, वे लोग डाकू और दुराचारी भी होंगे। वाजसनेय ( बृहदारण्यक )- मात्र ही ‘ वेद ‘ कहलाएगा। वेद की दस – पाँच शाखाएं ही प्रमाणभूत मानी जाएगी। धर्म का चोला पहने हुए लोग अधर्म में रुचि रखने वाले होंगे। राजा रूपी ‘ म्लेच्छ ‘ मनुष्यों का ही भक्षण करेंगे।

तदनन्तर भगवान कल्कि प्रकट होंगे। वे श्री विष्णुयशा के पुत्र रूप से अवतीर्ण हो याज्ञवल्क्य को अपना पुरोहित बनाएंगे। उन्हें अस्त्र-शस्त्र विद्या का पूर्ण परिज्ञान होगा। वे हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर म्लेच्छों का संहार कर डालेंगे तथा समस्त वर्णो और आश्रमों में शास्त्रीय मर्यादा स्थापित करेंगे। समस्त प्रजा को धर्म के उत्तम मार्ग में लगाएंगे। उसके बाद श्री हरि कल्कि का रूप परित्याग करके अपने धाम में चले जाएंगे। फिर तो पूर्ववत् सतयुग का साम्राज्य होगा। सभी वर्ण और आश्रम के लोग अपने-अपने धर्म में दृढ़ता पूर्वक लग जाएंगे। इस प्रकार संपूर्ण कल्पों तथा मन्वंतरों में श्री हरि के अवतार होते हैं। उनमें से कुछ हो चुके हैं और कुछ आगे होने वाले हैं, उन सब की कोई नियत संख्या नहीं है। जो मनुष्य श्री विष्णु के अंशावतार तथा पूर्णावतार सहित दस अवतारों के चित्रों का पाठ अथवा श्रवण करता है, वह संपूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। तथा निर्मल हृदय होकर परिवार सहित स्वर्ग को जाता है। इस प्रकार अवतार लेकर श्री हरि धर्म की व्यवस्था तथा अधर्म का निराकरण करते हैं। वे ही जगत की सृष्टि आदि का कारण है।

इस प्रकार अग्नि पुराण में बुद्ध तथा कल्कि अवतारों का सोलहवां अध्याय समाप्त होता है।

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